‘तलाक माँ को या फिर पत्नी को’ * कहानी दयाशंकर चौधरी
रात के करीब 9 बजने वाले थे। मैं अच्छे मूड में था, खाना खाने के बाद, सोने से पहले राज कपूर की फेमश मूवी ‘श्री 420’ देखना चाहता था। काफी दिनों से ये मूवी मेरे दिमाग में थी, किन्तु समय के अभाव में पूरी मूवी एक साथ कभी नहीं देख सका। दूसरे दिन छुट्टी थी, इसीलिए खाना खाने के बाद रात्रि जागरण का प्रोग्राम बनाया था।….. अचानक मेरा फोन घनघनाने लगा, उठा कर देखा तो उधर से मेरे दोस्त की पत्नी लाईन पर थीं।
‘हेलो, भाभी जी नमस्ते, अरे.. इतनी रात में कैसे, सब ठीक तो है।’
‘कुछ ठीक नहीं है भाई साहब’, सिसकते हुए उन्होंने कहा – ‘बस आप जल्दी से घर पर आ जाइए।’
मैंने घबरा कर पूछा, ‘आप इतनी घबराई हुई क्यों है, माता जी कैसी हैं, उन्हें कुछ हो तो नहीं गया, और भाई साहब कहां हैं, बच्चे-वच्चे सब ठीक-ठाक तो हैं न… आप कुछ बताती क्यों नहीं।’
मैं एक सांस में लगातार बोलता रहा। मुझे आशंका हो रही थी कि कहीं उनके परिवार में कुछ अमंगल तो नहीं हो गया।
उधर से भाभी जी बोली, ‘नहीं नहीं भाई साहब, ऐसा कुछ भी नहीं है, यहां सब कुछ ठीक है, आप बस घर आ जाइए, आपको सब कुछ पता चल जाएगा। आपका यहां आना बहुत जरूरी है। अगर आप नहीं आये तो हो सकता है कि कुछ अनहोनी हो जाए। बस आप जल्दी से घर आ जाइए। देखिए, टालिएगा नहीं, इतना समझ लीजिए कि इस समय आपका यहां होना बहुत जरूरी है। फोन पर सारी बातें नहीं बताई जा सकती।’ उन्होंने इतना कहते ही एक झटके से फोन काट दिया।
मैने पत्नी की ओर देखा, वह काफी देर से हम दोनों की वार्तालाप सुन रही थी। शायद मामले की गम्भीरता समझ रही थी।
उसने कहा- ‘आप तुरंत जाइए, और वहां पहुंचते ही मुझे फोन करिए। मुझे बहुत घबराहट हो रही है। लगता है कोई बात है, जो वह इतना घबरा रही हैं। आप जाइए जल्दी करिए।
मैंने अपनी कार निकाली और दस मिनट में उनके घर पहुँच गया। गाड़ी लाक करने के बाद जब मैं उनके कमरे में पहुँचा तो मामला वाकई बहुत गम्भीर लगा। भाभी जी ने मुझे देखते ही कहा, ‘आइए भाई साहब बैठिए।’ देखिए इन्हें, ये क्या करने जा रहे हैं। तलाक के कागज साथ लाये हैं, खुद तो दस्तखत कर दिए हैं, अब मुझे भी दस्तखत करने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
मैं अपने मित्र के सामने सोफे पर जाकर बैठ गया। कमरे का माहौल बहुत बोझिल सा था। सभी लोग चुप थे। भाई साहब के हाथों में कागजों वाली एक फाइल नजर आ रही थी। दरवाजे पर घर का नौकर चुप-चाप खड़ा था। माता जी कहीं नजर नहीं आ रही थीं।
मैने बच्चों से पूछा, ‘दादी जी कहां हैं, कहीं दिख नहीं रही हैं।’ किसी ने कोई जवाब नहीं दिया। मैने अपने मित्र की ओर देखा, नजरें मिली, इशारों में उनसे भी वही सवाल…।
मेरा आशय समझ कर उन्होंने धीरे-धीरे बोलना शुरू किया।
‘भैया, माता जी अब यहां नहीं रहती, उन्हें इन लोगों ने वृद्धाश्रम पहुंचा दिया है। अपने ही घर में उन्हें पराया कर दिया गया है।’
उनकी आंखों से आँसू बहना शुरू हो चुका था। सिसकियों के बीच उन्होंने बोलना जारी रखा।
“आज तीन दिन हो चुके हैं, जो माँ मुझे एक दिन भी अपनी नजरों से ओझल नहीं होने दिया करती थी, वो आज तीन दिन से मेरी नजरों से दूर हैं।” खाने के लिए देर रात तक मेरा इंतजार करने वाली “माँ” आज किस हाल में हैं, मैं नहीं जानता। उसने खाना खाया भी है या अभी भी मेरा इंतजार कर रही है, मैं कुछ भी नहीं जानता। आजकल उनकी सेहत भी कुछ ठीक नहीं रहती। जो माँ इन लोगों की बीमारियों में रात-रात भर जागा करती थी, मैं नहीं जानता आज उनकी तबीयत कैसी है।” इतना कहते ही वे फूट-फूट कर रोने लगे। मैने उन्हें रोने दिया, मैं सोच रहा था, रो लेने से शायद उनका मन कुछ हल्का हो सकेगा। मैंने घर के नौकर से चाय बना कर लाने के लिए कहा, कुछ देर बाद चाय बनकर आ गईं। मैंने उन्हें चाय पिलाने की भरसक कोशिश की, लेकिन वो सर झुकाये बैठे रहे, चाय को हाथ तक नहीं लगाया। मुझे अकेले ही चाय पीनी पडी़।
कुछ देर बाद उन्होंने सुबकते हुए कहा- “इनको (पत्नी को) माता जी की टोका-टाकी पसंद नहीं है। बच्चे भी उनकी कोई बात नहीं सुनते, यहाँ तक कि मेरे घर का नौकर भी सबकी देखा-देखी उनकी उपेक्षा किया करता है। उनका कोई काम नहीं करता। घर के सभी लोग उनसे परेशान थे। सब ने मिलकर तय कर लिया कि माता जी की बेहतरी के लिए उन्हें वृद्धाश्रम पहुँचा दिया जाना चाहिए। इन लोगों ने वही किया, जो इन्हें अच्छा लगा।”
उन्होंने अपने हाथों से आँसू पोंछे, और बोले- “मैंने तय कर लिया है कि अब मैं भी वृद्धाश्रम में रहूँगा। आखिर एक न एक दिन तो मुझे वहाँ जाना ही था, तो क्यों न अभी से वहाँ रहने की आदत डाल लूँ। जो लोग मेरी बूढ़ी माँ को बर्दाश्त नहीं कर सकते, वो लोग मेरे बुढ़ापे में मुझे कैसे बर्दाश्त करेंगे। इसी बहाने मैं अपनी माँ के बुढ़ापे में उनके साथ रह सकूंगा।”
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कुछ देर सांस लेने के लिए रुके, फिर बोलने लगे। “मैंने नौकरी से वीआरएस लेने का फैसला कर लिया है। उससे पहले अपनी वसीयत तैयार कर ली है। ये देखो वसीयत…। अच्छा हुआ तुम आ गये। इन लोगों को वसीयत पढ़ कर सुना दो, इसमें लिखा है कि मैं अपनी सारी जमीन-जायदाद, जमा-पूंजी इन लोगों के नाम कर रहा हूँ। नौकरी के बाद जो कुछ भी मिलेगा वो अपने आप इन लोगों का हो जाएगा।”
उन्होंने कहा- मैं सोचता हूँ, सभी लोग सुखी रहें। इसी लिए पत्नी सहित सभी को एक साथ तलाक दे रहा हूँ, माँ को नहीं। नौकरी छोड़कर मैं अपना और माँ का गुजारा पेंशन से कर लूंगा।
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उनके मन की भड़ास निकल चुकी थी, भाभी जी और बच्चों की आंखे भीग रही थी। सभी के मन में पछतावा था और अपने किए पर अफसोस भी…।
मैं एक झटके से उठा, ड्राइवर से बोला “गाड़ी निकालो, सभी लोग इसी समय वृद्धाश्रम जाएंगे।”
रात के ग्यारह बज चुके थे। एक घंटे के बाद गाड़ी वृद्धाश्रम के गेट पर जाकर रुकी। सिक्योरिटी गार्ड को अपना परिचय देने के बाद यहाँ आने का कारण बताया गया। उसने इतनी रात में गेट खोलने से इंकार करते हुए दूसरे दिन आने की सलाह दी। काफी अनुनय-विनय के बाद गार्ड ने वार्डन तक सूचना पहुंचाने की हामी भरी। कुछ देर इंतजार करने के बाद वार्डन अपनी एक सहयोगी के साथ गेट पर आ गईं। उन्हें माता जी का परिचय देने के साथ ही सारी वस्तुस्थिति से अवगत कराते हुए माता जी को इसी समय अपने साथ वापस घर ले जाने का आग्रह किया गया।
वार्डन भावुक हो गईं, उन्होंने कहा ‘नहीं, इस समय हम किसी को भी यहाँ से उन्हें ले जाने की इजाजत नहीं दे सकते। किसी का क्या भरोसा, आप लोग इस समय ले जाकर उनके साथ क्या सुलूक करो, कोई नहीं जानता।’
भाई साहब ये सुनते ही बुरी तरह बेचैन हो उठे। सिसकते हुए उन्होंने कहा – ‘माँ है मेरी, आप ऐसे कैसे सोंच सकते हैं। उन्हें किसी तरह की परेशानी न हो, इसी लिए तो हम उन्हें लेने आए हैं।
मैंने अपना परिचय देते हुए कहा – ‘ आप चिंता न करिये, हम इन्हें अपनी जिम्मेदारी पर लेकर जा रहे हैं। आप जहाँ चाहें हमसे लिखवा लीजिए।
काफी अनुनय-विनय के बाद आश्रम का गेट खोला गया, हम सभी लोग वहाँ पहुंचे जहाँ माता जी को अन्य वृद्धाओं के साथ रखा गया था। माता जी एक पलंग पर बैठी थीं, उनके हाथों में एक फ्रेमजड़ित फोटो थी, पूरे परिवार की ग्रुप फोटो को वे बड़े ध्यान से देख रहीं थीं। बड़ा मार्मिक दृश्य था, मेरी आँखें भी नम हो उठीं। फोटो देखने में वो इतना मशगूल थीं कि उन्हें वहाँ हमारे होने का आभास तक नहीं हो सका।
अचानक छोटा बेटा चिल्ला उठा, दा… दी….और जाकर उनसे लिपट गया। भाई साहब आँखों में पानी लिए चुप-चाप खडे़ थे, बेटी और भाभी जी भी जाकर उनसे लिपट गयीं और फफक कर रोने लगीं। ये पश्चाताप के आँसू थे। ऐसा लगा कि आँखों में आए सैलाब से सारा कलुष धुलता जा रहा है।
माता जी की नजरें उठीं, डबडबाई आँखों से इशारा किया, भाई साहब खुद को रोक नहीं सके, तेजी से आगे बढ़े और माँ से लिपट गये। सिसक रहे थे, माँ का हाथ उनके सर को सहला रहा था। सभी अन्तःवासी बुजुर्ग माताओं की भी आँखें नम थीं।
अचानक मैं बोल पड़ा, माता जी हम सब लोग आपको घर ले जाने आए हैं। वे असमंजस में बैठी थीं, नजरें उठाकर भाभी जी को देखा, भाभी जी के चेहरे पर पश्चाताप के भाव थे। उन्होंने कहा- ‘माता जी हमें माफ कर दीजिए, गलतियां आखिर बच्चों से ही होती हैं। चलिए, घर चलिए। हम लोग आपके बगैर नहीं रह सकते।’
रात के डेढ़ बज चुके थे। वार्डन की अनुमति से सभी लोग उठ खड़े हुए। उस रात वृद्धाश्रम में जगराता जैसा माहौल था। वार्डन, कर्मचारियों सहित सभी वृद्धाएं गेट तक विदा करने आईं थीं। विदा लेते हुए सभी के मन में उत्साह था। भाई साहब ने कहा कि ‘आज यहां आकर मुझे ऐसा लग रहा है कि मेरी एक नहीं कई माताएं हैं। अब से मैं हर हफ्ते इतवार के दिन यहाँ आया करूंगा और पूरा दिन इन माताओं के साथ गुजारूंगा।’ सभी को प्रणाम करने के बाद हमारा काफिला घर की ओर चल पड़ा। उस रात किसी की आँखों में नींद नहीं थी। धीरे-धीरे पूरी रात सुबह में बदल
गई। आज मेरे और भाई साहब के घर में एक नया और काफी चमकीला सूरज निकला था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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