मुझे याद है कि मैं उस समय अपने गांव में था| सुबह सुबह जब मैं उठा तो एक नई सी चहल-पहल दिख रही थी | चारों तरफ का वातावरण बिल्कुल स्वच्छ था| मंद मंद ताजी हवा बह रही थी | बागों से कोयल की आवाज ऐसी आ रही थी मानो कि वह किसी उत्सव का निमंत्रण दे रही हो | जब मैंने खेतों की पगडंडियों से होते हुए गांव के पथरीले रास्ते पर पैर रखा तो ऐसा लगा मानो मैं भी उस कोयल के उत्सव में शरीक होने जा रहा हूं |
वास्तव में यह उत्सव सावन के पहले दिन का था| सावन का नाम सुनते ही हमारे घरों में खुशी का माहौल गूंज जाता था, शरीर में एक नई स्फूर्ति दौड़ जाती थी| सावन अगर सबसे ज्यादा खास था तो उन गांव के छोटे-छोटे बच्चों के लिए था जो पूरा साल भर बस उस झूले के इंतजार में गुजार देते थे | उनको हिंदी कैलेंडर के किसी और महीने के नाम याद रहे या ना रहे परंतु सावन जरूर याद रहता था|
सावन सिर्फ मात्र वर्ष का एक महीना ही नहीं था; सावन उत्सव था, सावन जश्न था, सावन बहन की खुशी था, सावन भाइयों का प्यार था| कुल मिलाकर सावन को हम त्यौहार एवं उत्सव का महीना मानते थे| सावन ही वर्ष का राजा था| कोयल की पुकार और उनकी बगीचों के बीच से आवाज आना कानों के लिए इतना सुहाना लगता था मानो हम शताब्दी का सबसे मधुर संगीत सुन रहे हो|
मैं गांव के पथरीले रास्ते पर सुहाने मौसम में पैरों को एक ऐसा दर्द दे रहे था जिसको हम उस मौसम के दीवानेपन के आगे महसूस भी नहीं कर पा रहे थे बल्कि यूँ आगे बढ़े जा रहे थे जैसे कि हम किसी उत्सव में शामिल होने ही वाले थे | चारों तरफ हरे भरे खेतों खेत में लहराती धान की फसल किसानों का खेत के बीच में काम करना, कभी कभी बीच हार में खड़े होकर अपनी फसल को देख मन ही मन खुश हो जाना, कभी कभी चेहरे पर हल्की सी मुस्कान उनके उनकी खुशी को बयां कर रही थी| अभी उनको फसल बोए कुछ ही दिन हुए थे इसलिए फसल अपनी नई उम्र में ही थी| उस नई फसल का एहसास किसानों के लिए ऐसा था जैसे कि एक प्रेमिका अपने प्रेमी से काफी दिन के बाद मिली हो उस प्रेमी प्रेमिका के उभरते हुए प्रेम का एहसास किसानों के उभरती हुई फसल से बिल्कुल मेल खाता था| उस सुंदर एवं मनोरम दृश्य को देखकर मेरा दिल बाग बाग हो गया| उस दृश्य के आगे मानो सारी दुनिया फीकी हो| प्रकृति और किसान के संगम के आगे ऐसा लगा रहा था जैसे संसार का कोई भी सुख उस से बढ़कर नहीं है| उस प्रकृति और किसान के संगम के आगे संसार के सारे भौतिक सुख बौने थे| उसको देखकर मेरे पैर वहीं पर रुक गए| मैं वहीं पर खड़ा होकर उस किसान को निहारने लगा और उसको महसूस करने का एक असफल प्रयास करने लगा| किसान के उस प्रकृति में प्राकृतिक सुख को देख कर मुझे ऐसा लगा कि आखिर क्यों हमने इतना शहरीकरण और औद्योगिकीकरण कर लिया है? किसान के उस खुशी के माहौल के उतना खुशी इंसान कभी हमने देखा ही नहीं था| मेरा मन विचार करने लगा कि आखिर क्यों हम इतना भौतिक सुख के पीछे पड़े हैं? मैंने महसूस किया कि आखिर क्यों ना हम प्रकृति के इतना करीब जाकर उस खुशी का अनुभव करें|
राजकुमार सिंह
विद्यार्थी,अंग्रेजी एवं आधुनिक यूरोपिय भाषा विभाग,
लखनऊ विश्वविद्यालय