Published by Reeta Tiwari
लखनऊ। सघन खेती के इस युग में भूमि की उर्वराशक्ति बनाए रखने के लिए प्राकृतिक खादों का प्रयोग बढ़ रहा है। जबसे सघन कृषि का विकास हुआ है किसान लगातार रसायनिक उर्वरकों का प्रयोग करते आ रहे हैं। रसायनिक उर्वरकों ने न सिर्फ मृदा एवं जल प्रदूषण को बढ़ावा दिया इसके साथ भूमि की उपजाऊ क्षमता भी कम हुई है।
इन उर्वरकों के प्रयोग का मृदा के गठन, जलधारण रोकने की क्षमता, ओर्गेनिक कार्बन की मात्रा,पीएच मान, फसलों की गुणवत्ता में कमी, मानव स्वास्थ्य व पौष्टिक चारे के अभाव में पशुओं में बांझपन आदि बुरे प्रभाव हैं। इन दुष्प्रभावों को कम करने अथवा रोकने के लिए किसान जैविक खाद जैसे गोबर की खाद, कम्पोस्ट,वर्मीकम्पोस्ट व हरी खाद का प्रयोग कर सकते हैं। किसान इन खादों को खुद भी प्रयोग कर सकता है।
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वर्मीकम्पोस्ट या केंचुआ खाद: सबसे पहले तापमान व नमी को नियंत्रित रखने के लिए एक अस्थायी शेड बनाया जाता है। फिर इस शेड के नीचे वर्मी टैंक जिसका आकार लगभग 1 मी. चौड़ा , 0.5 मी. गहरा और 10 मी. लंबा होता है। केंचुआ खाद बनाने के लिए सामग्री के रूप में कृषि अवशेष, जल खुंबी, केले व बबूल की पत्तियाँ, हरी सुखी पत्तियाँ, बिना फुली घास,गले-सड़े फल व सब्जियाँ, घरेलू कचरा व पशुओं का गोबर प्रयोग में लाया जा सकता है।
पहले कचरे को गोबर के घोल में मिला कर 15 दिन तक सड़ाया जाता है। इसके बाद वर्मी टैंक में 6 इंच की परत बना देते हैं। इस गोबर की परत के ऊपर 500-1000 केचुएँ प्रति वर्ग मी. के हिसाब से डाले जाते हैं। इसके लिए इसीनिया फोएटिडा, यूड्रिजस यूजिनी, फेरीटिमा एलोंगटा आदि केंचुए की उपयुक्त प्रजातियाँ का प्रयोग किया जाता है।
टैंक के अंदर तापमान 25-30 सेल्सियस व 30-35 प्रतिशत नमी रखी जाती है। इसके साथ-साथ शेड पर अंधेरा बनाए रखें क्योंकि केंचुए अंधेरे में ज्यादा रहते हैं। 25-30 दिन बाद ढेर को हाथों या लोहे के पंजे से धीरे-धीरे पलटते हैं। लगभग 60-75 दिन में वर्मीकम्पोस्ट तैयार हो जाती है। टैंक में विषैले पौधों जैसे आक, ताजा गोबर व कठोर टहनियाँ नहीं डालें। इसके साथ-साथ गड्डों को चींटियों, कीड़े-मकोड़ों, कौओं तथा पक्षियों आदि से सुरक्षित रखें । 8-12 प्रतिशत नमी रख कर इस खाद का एक साल तक भंडारण कर सकते हैं।
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गोबर की खाद: गोबर खाद बनाने के लिए भारत में मुख्य रूप से निम्न विधियाँ प्रचलित हैं-
ठंडी विधि: इसके लिए उपयुक्त आकार का गड्डा 9.1 मी. लंबा,1.8 मी. चौड़ा व 0.8 मी. गहरा होता है। फिर इसमें गोबर भर दिया जाता है। भरते समय इसे इस प्रकार दबाया जाता है की कोई जगह खाली न रह जाए। गड्डे के ऊपरी भाग को गुंबदनुमा बनाया जाता है ताकि बरसात का पानी इसमें न घुसे इसके साथ-साथ इसे गोबर से लेप दिया जाता है। खाद को लगभाग 2-3 महीने तक बनने के लिए छोड़ दिया जाता है। गड्डे में हवा के अभाव में रसायनिक क्रियाएँ कम होती है तथा इसका तापमान 34 डिग्री सेल्सियस से ऊपर नहीं जा पाता। इस विधि में नत्रजन युक्त पदार्थ खाद से निकल नहीं पाते।
गरम विधि: इस विधि में गोबर की एक पतली तह बिना दबाएं डाल दी जाती है। हवा की उपस्थिति में रसायनिक क्रियाएँ होती है जिस से तापमान 60 डिग्री सेल्सियस से ऊपर पहुंच जाता है। तापमान बढऩे से विशेष फायदा यह होता है कि इसमें उपस्थित घास व मोटे हानिकारक पौधों के बीज नष्ट हो जातें हैं। प्रत्येक पशु के गोबर से इस प्रकार 5-6 टन खाद बनाई जा सकती है।
कम्पोस्ट : कम्पोस्ट बनाने के लिए एसी जगह का चुनाव करना चाहिए जहॉँ हवा और सूर्य का प्रकाश कम मात्रा में पहुंचे तथा जगह छायादार हो। उसके बाद उस जगह पर अपशिष्ट की मात्रा के अनुसार गड्डा खोद लें। इसके बाद सबसे पहले कुछ दिन पुराना पशुओं का सूखा गोबर डाल दें। गोबर डालने के बाद उसमें सूखी नीम की पत्तियों की परत बनाएं। क्योंकि इसमें नत्रजन की मात्रा ज्यादा पाई जाती है। इसके बाद इसमें गीले व सूखे अपशिष्ट की 4-5 परत बना दें। गीले अपशिष्ट के रूप में सब्जियों का कचरा, पेड़-पौधों कि गीली टेहनियों व हरी घास का इस्तेमाल करें। गड्डे को अच्छी तरह भरने के बाद इसमें पानी डाल कर इसमें एक और गोबर की परत बना दें। फिर इसके ऊपर लगभग 15 सेमी की मिट्टी की परत बनाकर पानी से गीला कर दें। जिसके बाद उसे 3 महीने के लिए छोड़ दें। 3 महीने बाद किसान इस कम्पोस्ट का प्रयोग खेत में करें।
हरी खाद : अप्रैल-मई के माह में गेहूं की फसल कि कटाई के बाद खेत कि सिंचाई करें। इसके बाद इस खेत में हरी खाद वाली फसलें जैसे ढ़ेंचा, लोबिया, उड़द, मूंग, ग्वार, बरसीम आदि का बीज उपयुक्त मात्र में डाल कर बिजाई करें। जरूरत पडऩे पर बीच में 1-2 बार सिंचाई करें। 45-50 दिन बाद बोई गई फसल जोत कर मिट्टी में मिला दें। इस अवस्था में पौधे की लंबाई, हरी-शुष्क सामग्री अधिकतम होती है। फसल का तना भी नरम व नाजुक होता है। जो आसानी से मिट्टी में मिल जाता है। इस अवस्था में बनी हरी खाद में नत्रजन की उपलब्धता भी अधिक होती है।
जैविक खाद के लाभ:
- इससे मिट्टी की भौतिक व रसायनिक स्थिति में सुधार होता है।
- उर्वरक क्षमता बढ़ती है।
- सूक्ष्म जीवों की गतिविधि में वृद्धि होती है।
- मिट्टी की संरचना में सुधार होता है जिससे पौधे की जड़ों का फैलाव अच्छा होता है। इस के साथ-साथ मिट्टी की पानी रोकने की क्षमता बढ़ती है।
- मृदा अपरदन कम होता है।
- मृदा तापमान व नमी बनी रहती है।
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