पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब’ …..कहानी ‘दयाशंकर चौधरी’ पार्ट-2 आगे जारी है…..
एक अदद कमरे के मकान के लिए उसने अपने परिचितों, रिश्तेदारों से गुहार लगाई, किन्तु उसके हालात और परेशानियों के मकड़जाल को देख कर कोई भी नहीं पसीजा। अब क्या करे, कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। अचानक उसके जे़हन में झुग्गी बस्तियों का विचार कौंधा, वह जगह की तलाश में उधर निकल पड़ा।
झुग्गी बस्ती में पहुँच कर उसे पता चला कि यहाँ रहने के लिए बस्ती के “दादा” से मिलना पडे़गा। उसे बस्ती के दादा के पास पहुँचा दिया गया। अब वह बड़ी-बड़ी दाढ़ी और मूँछों वाले एक हट्टे कट्टे शख्स के सामने था।
उसे बताया गया कि इस जगह पर रहने के लिए हर महीने दो हजार रुपये किराये के देने होंगे। एक बल्ब की बिजली और पानी फ्री मिलेगा। अचानक छापा पड़ने पर बिजली हटानी पड़ेगी। दूसरे दिन उसने बाजार से बांस की खपच्चियों से बना “टट्टर” और मतलब भर की पालीथीन खरीद लिया और जमीन के एक छोटे से टुकड़े पर पालीथीन तान कर एक छोटा सा आशियाना बना लिया।
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वह वापस अपने घर पहुँचा, माँ को सारे हालात की जानकारी दी और कहा कि “माँ, अब हम यहाँ नहीं रह सकते। बैंक वालों ने कोर्ट से कुर्की का आदेश कराया है। कुछ दिनों में हमारा घर नीलाम हो जाएगा। मैने पास की एक झुग्गी बस्ती में एक झोपड़ी डाल ली है। हमें वहाँ जा कर रहना पड़ेगा। इस घर से कुछ जरूरत का सामान ले लेते हैं, बाकी बेच देंगें।” माँ चलने के लिए तैयार हो गयी। माँ को ले जाकर उसने अपनी झोपड़ी में छोड़ा और बाद में अपने काम पर चला गया। शुरू-शुरू में काम करने में उसे थोड़ी झिझक हुई, लेकिन बाद में सारे काम बेझिझक करने लगा।
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जूठे बर्तन उठाना, ग्राहकों को खाना परोसना, मेज कुर्सी साफ करना, आदि सारे काम दिल लगा कर करने लगा। कुछ दिन बाद उसकी मेहनत, ईमानदारी, सूझ-बूझ और साफ-सुथरे पहनावे आदि से प्रभावित होकर मालिक ने उसे गल्ले पर खड़ा कर दिया। साथ ही उससे हिसाब-किताब का काम भी लेने लगा।
पढ़ा-लिखा और प्रतिभाशाली तो वह था ही, सो काम को आसान करने और ग्राहकों की बेईमानी से बचने के लिए उसने दुकान पर टोकन सिस्टम लागू करने की सोची। मालिक से सलाह करके उसने इसे लागू भी कर दिया। परिणाम आशानुकूल निकला। मालिक इससे बहुत खुश था।
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रोज रात में दिन भर का हिसाब करने के बाद दूसरे दिन की आवश्यकता के अनुसार सामान का पर्चा बना दिया करता था। इससे काम में बहुत आसानी होने लगी और समय भी बचने लगा। ढाबा मालिक ने कुछ ही दिनों में उसकी दिहाड़ी बढ़ा दी और दोनों टाईम के खाने के अलावा माँ के लिए खाना ले जाने की इजाजत भी दे दी। अब उसकी गाड़ी कुछ पटरी पर आने लगी थी। माँ के नियमित इलाज के बाद उनकी सेहत में भी तेजी से सुधार होने लगा था। वह ढाबा मालिक के साथ मन लगा कर काम करता रहा। अब ढाबा में उसकी हैसियत एक नौकर की नहीं थी। वहाँ काम करने वाले सभी लोग उसे इसलिये इज्जत देते थे, क्योंकि वह सभी के सुख-दुख का बराबर ख्याल रखता था।
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ढाबा की आमदनी भी बढ़ चुकी थी। उसने ढाबा मालिक को सलाह दी कि यहाँ सारा काम ठीक-ठाक चल रहा है, क्यों न हम लोग अपने ढाबे की दूसरी ब्रांच खोलने की कोशिश करें। मालिक ने जवाब दिया कि “उसके लिए जगह-जमीन चाहिए, और उसके लिए ढ़ेर सारा पैसा भी। हमारे पास ये सब इंतजाम कहाँ है। नहीं -नहीं ये सब असम्भव है।” उसने जवाब दिया “ढ़ाबे के लिए जगह जमीन की कोई जरूरत नहीं है। आजकल चलता-फिरता ढाबा भी चल रहा है। उसके लिए ढाबा नुमा एक गाड़ी और थोड़े कर्मचारियों की जरूरत है। कोशिश की जाए तो ये काम सम्भव हो सकता है।”
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मालिक ने इसके लिए मंजूरी देते हुए एक और जिम्मेदारी उसके ऊपर डाल दी। उसे इन सब कामों के लिए बराबर का भागीदार बना दिया गया। अब वह ढाबे का नौकर नहीं था, बल्कि मालिक था। इतना सब कुछ होने के बाद भी उसने मेहनत और ईमानदारी का दामन कभी नहीं छोड़ा। साल दर साल बीतते रहे, दोनों में बराबर नाम रही थी। दोनों तरक्की कर रहे थे। उसका मकान तो कुर्क हो चुका था। उसने अपना एक नया मकान बना लिया। अब उसके जीवन में कोई अभाव या तनाव नहीं था। प्रभु की कृपा से जीवन आराम से गुजर रहा था।
पहले वह सोचा करता था कि ज़्यादा शिक्षित होना भी कभी-कभी अभिशाप बन जाता है। उसके साथ यही हुआ था। बैंक और कोर्ट कचहरी की दुर्घटना उसके लिए अभिशाप जैसी ही थी। लेकिन माँ ने हौसला बरक़रार रखने में बड़ी मदद की है। माँ की सीख के विपरीत वह सोचा करता था, “एक गरीब और सामान्य आदमी के लिए अपनी हैसियत के मुताबिक शिक्षित होना चाहिए। उसने सोचा ज़्यादा शिक्षित होना अभिशाप हो सकता है, लेकिन ज़्यादा शिक्षित होना भी बेकार नहीं होता है। माँ की सीख अब सच साबित हो रही है। “सच है-पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब। -समाप्त