‘जोरू का गुलाम’- (कहानी दयाशंकर चौधरी)। “शंकर, तुम अपनी बीबी से इतना क्यों डरते हो।” मैंने अपने नौकर से पूछा।
“डरता नहीं साहब, उसकी कद्र करता हूँ, इज्जत करता हूँ।” शंकर ने जवाब दिया।
मैं हँसा और बोला, “ऐसा क्या है उसमें, न उसकी शक्ल सूरत अच्छी है, न ही वह पढ़ी-लिखी है।” उसने जवाब दिया, “कोई फर्क नहीं पड़ता साहब, पर मुझे सबसे प्यारा रिश्ता उसी का लगता है। सभी रिश्तों से ऊपर…।
“जोरु का गुलाम” मैं मन ही मन बुदबुदाया। “क्या और कोई रिश्ता मायने नहीं रखता तेरे लिए।”
उसने बड़े इत्मिनान से जवाब दिया। बोला, “ऐसा नहीं है साहब, माँ-बाप कोई रिश्तेदार थोड़े ही होते हैं, वे तो भगवान होते हैं, उनसे रिश्ता नहीं निभाते, उनकी तो पूजा करनी चाहिए। भाई-बहन का रिश्ता तो जन्मजात होता है। दोस्ती का रिश्ता भी मतलब भर का होता है।”
उसने कहा, “साहब, आपका और मेरा रिश्ता भी जरूरत और पैसों पर टिका है।”
“पर पत्नी… बिना किसी करीबी रिश्ते के भी हमेशा-हमेशा के लिए हमारी हो जाती है। अपने माँ-बाप, भाई-बहन, सभी रिश्तों को पीछे छोड़ कर सदा के लिए हमसे रिश्ता जोड़ लेती है। हमारे हर सुख-दुख की सहभागी बन जाती है। आखरी साँसों तक।”
मैं, अब उसकी दार्शनिक बातें बड़े ध्यान से सुन रहा था।
वह आगे बोला, “साहब जी, पत्नी सिर्फ एक अकेला रिश्ता ही नहीं है, बल्कि रिश्तों का पूरा भंडार है। जब वह हमारी सेवा करती है, हमारा ध्यान रखती है, हमारी देखभाल करती है, हमसे दुलार करती है, तब वह एक “माँ ” जैसी होती है। जब वह जमाने के उतार चढ़ाव से हमें आगाह करती है, जब मैं अपनी सारी कमाई उसके हाथ पर रख देता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि वह हमारे घर का भला ही करेगी, तब वह एक “पिता” जैसी होती है। जब वह हमसे लाड (प्यार दुलार) करती है, हमारे लिए खरीदारी करती है, हमारी गलतियों पर हमें डाँटती है, तब वह “बहन” जैसी होती है। जब वह नई-नई फरमाईसें करती है, नखरे करती है, रूठती है, जिद करती है, फिर मान भी जाती है, तब वह “बेटी” जैसी होती है।
जब वह हमें नसीहतें देती है, परिवार चलाने के लिए सलाह देती है, लड़ती है, झगड़ा करती है, रूठ जाती है, तब वह “दोस्त” जैसी होती है। जब वह सारे घर का लेन-देन करती है, जिम्मेदारी उठाती है, घर के अहम फैसले करती है, तब वह “मालकिन” जैसी होती है। जब वह अपना सब कुछ छोड़ कर, यहाँ तक कि अपने बच्चों को भी छोड़ कर हमारी बाँहों में आती है, समर्पित हो जाती है, अपना सब कुछ हम पर न्योछावर कर देती है, तब वह हमारी पत्नी होती है, प्रेमिका होती है, अर्धांगिनी होती है, हमारी आत्मा होती है। मैं उसकी इज्जत करता हूँ तो क्या गलत करता हूँ साहब। ”
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एक अनपढ़ और सीमित साधन में जीवन निर्वाह करने वाले व्यक्ति से मुझे जीवन का एक नया अनुभव मिला।
…. और वह कुछ ऐसा है कि बीमार पत्नी का अगर पति प्यार से सिर सहला दे तो वह पत्नी की गुलामी नहीं होती।
अगर पत्नी टिफिन बना रही है तो पति अगर बच्चों को तैयार करके बाल बना दे तो यह पत्नी की गुलामी नहीं होती।
नहाने के बाद पति तौलिया पलंग पर फेंकने के बजाय खूँटी पर टाँग दे तो यह पत्नी की गुलामी नहीं होती।
काम से लौटने पर पत्नी की मनपसंद चीजें ले आए तो यह गुलामी नहीं होती।
घर के काम-धाम और साफ-सफाई में लगी पत्नी के लिए अगर चाय बना दे तो यह गुलामी नहीं होती।
काम से छुट्टी होने पर घर के छोटे-छोटे कामों में पत्नी का हाथ बंटा दे तो यह गुलामी नहीं होती।
ऐसी तमाम छोटी-छोटी बातों को पति लोग इस लिए नजर अंदाज कर देते हैं कि कहीं कोई देख न ले, और कहने लगे कि यह तो जोरु का गुलाम है।
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जिंदगी आपकी है, पत्नी आपकी है, उसकी जिम्मेदारी आपकी है। लोगों का क्या है, उनकी जबान है, खाना हजम करने के लिए उन्हें जबान तो चलानी ही है।
पति और पत्नी का रिश्ता बहुत कोमल होता है। इसे प्यार, समझदारी और जिम्मेदारी से निभाना चाहिए। एक बात हमेशा याद रखनी चाहिए, “कुछ तो लोग कहेंगे…. लोगों का काम है कहना….. छोडो़… बेकार की बातों में कहीं बीत न जाए रैना…। कुछ तो लोग कहेंगे….।
(* लेखक, वरिष्ठ पत्रकार व समीक्षक हैं )