प्रेम पूजा है, प्रेम समर्पण है, और यदि प्रेम में विश्वास हो तो प्रेम ईश्वर है। प्रेम कीे पराकाष्ठा ही परमेश्वर है। प्रेम संयोग से होता है और संयोग से वियोग होता है। वियोग की धारा जब टूटे अंतामन से फूटती है तो यह एक इतिहास बनाती है एक परंपरा में तब्दील होती है। भारतीय संस्कृति में प्रेम को बड़ा महत्व दिया गया है। हमारे समाज में प्रेम संयोग और वियोग की ढेरों कहानियां प्रचलित हैं। कृष्ण के प्रेम में गोपियों का वियोग श्रीमद भागवत महापुराण का एक अध्याय बनता है। मोहन के प्रति मीरा के प्रेम का परिमार्थ विष को अमृत में बदलता है। लैला-मजनू, हीर रांझा, शीरी -फरहाद, रोमियो और जूलियट जैसी अनगिनत प्रेम की अधूरी कहानियां हमारे मन मस्तिष्क में प्रेम और वियोग के द्वंद का प्रतीक बनी हुईं हैं। वर्तमान में यह कहानियां अब कहानियां न रहकर एक परंपरा बन चुकीं हैं। एक ऐसी ही परंपरा सदियों से चली आ रही है जिसे हम झोंझी और टेसू के नाम से जानते हैं।
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कब होता है झेंझी और टेसू का त्योहार
दशहरा से ठीक एक दिन पहले नवमी तिथि से आने वाली पूर्णमासी तक ब्रज खण्ड और बुंदेलखंड क्षेत्र में हर साल गांव-गली में इस तरह के गीत सुनाई देने लगते हैं। इन्हे टेसू और झांझी गीत कहा जाता है। क्वार माह की नवमी से लेकर शरद पूर्णिमा तक गांवों में उत्सव का माहौल रहता है। ऐसा लगता है जैसे गांव की हर गली और चौबारे में विवाह आयोजित हो रहे हों। छोटे बालक, बालिकाओं और महिलाओं के लिए यह सात दिन फुल मस्ती भरे होते हैं। क्वांरी लड़कियों से लेकर सादी-सुदा महिलाओं को टेसू और झेंझी के उत्सव में भाग लेने के लिए पूरी छूट रहती है।
क्या है झेंझी और टेसू की कथा
कौन हैं यह टेसू। झोंझी सेे शादी होते ही इनका सिर धड़ से अलग क्यों कर दिया जाता है। घर-घर जाकर झोंझी और टेसू को क्यों भीख मांगनी पड़ती है। क्या झोंझी और टेसू कोई त्योहार है आखिर यह परंपरा क्यों चली आ रही है इसके पीछे की कहानी क्या है। रत्नशिखा टाइम्स पर पहली बार झोंझी और टेसू की प्रेम कहानी को आप लोग विस्तार से जानेंगे।
यह कहानी है महाबली भीम के पुत्र घटोत्कक्ष के बेटे बर्बरीक की। जिन्हें लोग बब्रुवाहन के नाम से भी जानते हैं। बर्बरीक की तुरीण में तीन सोने के तीर थे। ऐसा कहा जाता है कि मां कामाख्या देवी से मिले इन तीन तीरों की सहायता से वह बड़े से बड़े युद्ध को अकेले समाप्त कर सकते थे। बर्बरीक जितने बलवान थे उतने ही सुंदर भी। वह जितने सुंदर थे उतने ही दयावान।
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कौरव और पांडवों के बीच युद्ध का शंखनाद हो चुका था। समस्त आर्यावर्त के योद्धा किसी न किसी देश के ध्वज तले कौरव या पाण्डवों के पक्ष में युद्ध करने आये थे। भीम पुत्र घटोत्कक्ष अपनी दानव सेना के साथ पाण्डवों के शिविर में आ डटा था। कामाख्या देवी की उपासना में लीन बर्बरीक को जब इस युद्ध के विषय में पता चला तो वह भी उसमें भाग लेने के लिए निकल पड़ा। जब वह अपनी माता कामकंटका से युद्ध की आज्ञा लेने गया तो उसने प्रश्न किया मां मुझे तो किसी भी तरफ से युद्ध का आमंत्रण नही मिला। लेकिन एक वीर योद्धा होने के नाते मैं युद्ध से बाहर नहीं बैठ सकता आप मेरा मार्गदर्शन करें कि मुझे किसके पक्ष में युद्ध करना चाहिए। माता ने कहा कि पुत्र तुम पांडव के वंशज हो इस लिए तुम्हें पाण्डवों के पक्ष में युद्ध करना चाहिए। बर्बरीक ने कहा, लेकिन माता मैने तुम्हे मैने वचन दिया था कि मैं हमेशा निर्बल और कमजोर पक्ष का साथ दूंगा। तो आप हमें बताएं कि दोनों पक्षों में निर्बल पक्ष कौन है।
कामकंटका ने कहा पुत्र वह बचपन की बात थी। मां शक्तिरूपा से मैने यही कहकर तुम्हें मांगा था कि मेरा पुत्र हमेश कमजोर और निर्बल जनों की रक्षा करेगा। तुम यह बात कृष्ण से जाकर पूछना वही तुम्हारा उचित मार्गदर्शन कर सकते हैं। धर्म के ज्ञान में आज संपूर्ण जगत में उनसे बड़ा ज्ञानी दूसरा कोई नहीं है।
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मां की आज्ञा लेकर महाबली बर्बरीक कुरूक्षेत्र के लिए निकल पड़ा। रास्ते मंे झांझनी नाम की नाग कन्या से उसकी मुलाकात हो गयी। झांझनी अपनी सखियों के साथ शिव की आराधना कर रही थी।
नाग कन्याओं ने बर्बरीक से शादी का प्रस्ताव रखा जिसे उन्होंने विनम्रता पूर्वक ठुकरा दिया। उन्होने कहा कि वह युद्ध में भाग लेने जा रहे हैं और युद्ध में जाते समय क्षत्रिय सिर्फ जय या पराजय के साथ विवाह करता है। इसलिए आप सभी मुझे छमा करें।
झांझी ने कहा कि वह बर्बरीक को अपना पति मान चुकी है, यदि उसकी शादी नहीं हुई तो वह आजीवन बिना ब्याह के रह जायेगी। बर्बरीक ने कहा कि युद्ध की समाप्ति तक यदि वह जीवित रहा तो उससे जरूर मुलाकात करने आयेगा। दंत कथाओं के अनुसार यह अश्विन मास की नवमी का दिन था। झांझनी और बर्बरीक की मुलाकात के इस दिन को टेसू और झोंझी के त्योहार का पहला दिन माना जाता है।
बर्बरीक के जाने के बाद झांझनी ने टेसू के फूल और उसके झाड़ से एक बर्बरीक का प्रतीकात्मक पुतला तैयार किया। उस पुतले को खड़ा करके झांझनी ने दीपक हांथ में लेकर बर्बरीक के शकुशल लौटने की भगवान शिव से आराधना की। उसने सखियों के साथ तरह-तरह के श्रंगार, प्रेम और वियोग के गीत गाये।
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नवमी के दिन से होती है शुरूआत
आज भी लड़कियां नवमी के दिन लकड़ी के पट्टे को गाय के गोबर से सजाती हैं। उसमें वह टेसू के फूल लगाती है। उसमें दीपक स्थापित कर घर-घर मांगने जाती हैं। क्षेत्र और बोली भाषा के अनुरूप अलग-अलग तरह के गीत गाती हैं। गीतों में उसके अर्थ से ज्यादा उसकी लय पर फोकस किया जाता है। लड़कियां सिर पर सजी हुई पटुली लेकर निकलती हैं और अलग-अलग घरांे मंे अलग-अलग तरह के गीत गाकर अनाज इकट्ठा करती हैं। कानपुर, महोबा, झांसी, मैनपुरी, ऐटा, इटावा, भिण्ड, मथुरा मुरैना, आगरा, औरैया, जालौन यानि ब्रजखण्ड और बुंदेलखण्ड के ज्यादातर भूभाग में टेसू और झोंझी का खेल खेला जाता है। राजस्थान और हरियाणा के कई इलाकों में भी झोझी और टेसू उत्सव मनाने की परंपरा है।
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