गाय को राष्ट्रीय पशु का दर्जा दिया जाना चाहिए, यह बात इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कही है। इसके पहले वर्ष 2017 में राजस्थान हाईकोर्ट ने भी गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने का सुझाव दिया था। उत्तराखंड विधानसभा में बाकायदा इस बाबत प्रस्ताव पारित करके केन्द्र को भेजा जा चुका है।
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ को गौ प्रेमी और गौ सेवक माना जाता है। किन्तु, अब तक सरकारों ने इस पर कोई अमल नहीं किया है। निश्चित रूप से गाय भारतीय जन-जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा है। खासकर ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में तो गौवंश के बिना जीवन की परिकल्पना ही नहीं की जा सकती। अब भी भारत लगभग 60 फीसद कृषि आधारित देश है।
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ग्रामीण इलाकों के साथ शहरों में भी गाय आर्थिक संबल का बहुत बड़ा सहारा हैं। दूध बेचकर कई घरों का गुजारा चलता है। तो कुछ गाय पालकर दूध की जरूरतों को पूरा करते हैं। परोक्ष और अपरोक्ष रूप से गाय से जुड़ी हर चीज भारतीय परिवार का हिस्सा है। गाय का गोबर जहां प्राकृतिक खेती के लिए उपयोगी है, तो वहीं गौमूत्र आर्युवेद में तमाम बीमारियों के लिए लाभकारी बताया गया है।
गौवंश के संबंध में वैज्ञानिक पक्ष यह है कि गाय एकमात्र प्राणी है जो ऑक्सीजन ग्रहण करती है और ऑक्सीजन ही छोड़ती है। पंचगव्य का निर्माण गाय के दूध, दही, घी, मूत्र, गोबर से होता है। पंचगव्य के कैंसरनाशक प्रभावों पर यूएस से भारत ने पेटेंट प्राप्त कर रखा है। 6 पेटेंट अभी तक गौमूत्र के अनेक प्रभावों पर प्राप्त किए जा चुके हैं। देश ही नहीं विदेशों में भी गाय पर सबकी नजर है और इस पर शोध अनुसंधान किया जा रहा।
भारतीय शास्त्रों, पुराणों और धर्मग्रंथों में इसीलिए गाय की महिमा को बताते हुए इसे मां के समान पूजने की बात कही गयी है। यानी गाय और भारतीय संस्कृति एक दूसरे के पूरक हैं। उप्र में ‘देशी’ गायों के प्रति अपना आभार प्रकट करने के लिए गोपाष्टमी का त्योहार राज्यव्यापी उत्सव के रूप में मनाया जाता है। एक योजना के तहत यूपी सरकार गायों के रखरखाव के लिए प्रति माह 900 रुपए देती भी है।
यूपी में इस वक्त फिलहाल, करीब 5,150 गौ रक्षा केंद्रों में 540176 गौवंश संरक्षित किए गये हैं (सभी आंकड़े कृषि उत्पादन आयुक्त उ.प्र. की अध्यक्षता में 5 जनवरी 2021 को हुई बैठक की सूचना पर आधारित हैं)। उप्र में 171 बड़े गौ-संरक्षण केंद्र या गाय अभयारण्य बनाए गए हैं। 3,452 चारा बैंक बनाये गये हैं। इनके माध्यम से गायों को समय पर चारा उपलब्ध कराये जाने की परिकल्पना की गई है। किन्तु इनकी जमीनी हकीकत स्थानीय लोग ही बता सकते हैं। गायों की रक्षा के लिए कानूनी प्रावधान किए गए हैं।
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देश के 29 में से 24 राज्यों में गौ हत्या पर प्रतिबंध है
इसके अलावा पशुधन विभाग में पशु चिकित्सा अधिकारी के 1984 पद स्वीकृत हैं, जिनके सापेक्ष 1740 अधिकारी ही कार्यरत हैं, यानि 244 पद रिक्त चल रहे हैं। इसी तरह पशुधन प्रसार अधिकारी के कुल 3116 पद स्वीकृत हैं। जिसके सापेक्ष 2475 अधिकारी ही कार्यरत हैं, अर्थात 641 पद रिक्त चल रहे हैं।
पशुधन विभाग में पशु चिकित्सा विज्ञान से सम्बन्धित अधिकारी और सहयोगी स्टाफ हैं, जिनके माध्यम से प्रदेश में स्थापित गौ आश्रय स्थलों में संरक्षित गौ वंश की टैगिंग, स्वास्थ्य चिकित्सा नर गौवंश का बधिया करण, कृत्रिम गर्भाधान एवं मृत्यु होने की दशा में शव निस्तारण की कार्यवाही को भी अपने मूलकार्य पशुपोषण, पशु प्रजनन, पशु प्रबंधन एवं रोग नियंत्रण के साथ-साथ किया जा रहा है।
ऐसी परिस्थतियों में यदि पशुधन विभाग के अधिकारियों को गौ आश्रय स्थल का दायित्व सौंपा जाता है तो टीकाकरण, कृत्रिम गर्भाधान एवं पशु चिकित्सा के कार्य बुरी तरह प्रभावित होंगे। ये हास्यास्पद ही है कि सब कुछ जानते हुए भी राज्यस्तर पर इस ओर से आंखें मूंदने की कोशिश की जा रही है।
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अन्ना प्रथा एक अलग तरह की समस्या है
बुन्देल खंड में अन्ना प्रथा अब किसी विपदा से कम नहीं रह गई है। सदियों से चली आ रही इस प्रथा में पहले चैत्र मास में फसल कटाई के बाद , गौवंश को खुला छोड़ा जाता था , पिछले दो दशको में इस प्रथा को किसानों ने हमेशा के लिए अपना लिया ।
हालात ये बने कि खुले छूटे जानवर सड़कों पर घूमने लगे, फसलों को उजाड़ने लगे, किसानों में आपसी संघर्ष होने लगे , मसला सरकार के मुखियाओं तक पहुंचा, लोक सभा में भी इसकी गूंज भी सुनाई दी, कुछ ने मसले के निपटाने के जतन किये पर कुछ ने इस पर ध्यान देना ही जरूरी नहीं समझ । देखा जाए तो समस्या के मूल में बुंदेलखंड के किसानों के आर्थिक हालात, सरकार की नीतियां ही मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं ।
बुंदेलखंड इलाके में यह प्रथा थी की जब चैत्र मास में फसल कट जाती थी , और खेत खाली हो जाते थे ,उस समय जानवरो को खुला छोड़ दिया जाता था । इसके पीछे किसानों का एक कृषि ज्ञान काम करता था । खुले खेतों में इन जानवरो के विचरण करने और चरने से उन्हें अपने खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ाने में मदद मिलती थी । खेत में इन जानवरों का गोमूत्र और गोबर खाद का काम करता था । हालात बदले और किसानों ने मशीनो से दोस्ती कर ली , गौवंश से नाता तोड़ लिया ।
नतीजा ये हुआ कि दूध देने वाले जानवरो के अलावा सभी को खुले मे छोड दिया गया । गौवंश को जब अधिकांश किसानों ने हमेशा के लिये खुला छोड़ा तो यही जानवर किसानों के लिए एक बड़ी समस्या बन गये।इस लावारिश पशु धन को जहां पानी मिला वहां अपनी प्यास बुझा ली, जो खेत मिला उसी से अपने पेट की आग बुझा ली ।
जब खेतो की फैसलें उजड़ने लगी तो किसानों को ये समस्या किसी विपदा से कम नहीं जान पड़ी । किसान को अब अपनी फसलें बचाने के लिए दोहरी मेहनत करनी पड़ रही है। पहले से ही नील गाय से परेशान किसान अब इस गौवंश पर लाठियां लेकर टूट पड़ा।
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एक गांव से दूसरे गांव भगाने लगा। इस का असर ये हुआ की गांव के गांव आपस में दुश्मन होने लगे। लोगों में लाठियां चलने लगी, गाली गलौच होने लगी।इसे बदलते दौर की विडम्बना ही कहेंगे की जहां गौ वंश के पूजन से वर्तमान और भविष्य को सुरक्षित बनाया जाता था वहीं आज गौवंश को किसान मुसीबत के तौर पर देखने लगा है।
सकारात्मक समाधान योजना की जरुरत
हालांकि इस समस्या के सकारात्मक समाधान की योजना बनाये जाने की जरूरत है। गोबर, गौमूत्र और गौउत्पाद का सकारात्मक उपयोग किया जा सकता है। इसके लिए यदि आधारभूत संरचना तैयार की जाये तो गौवंश लाभकारी व्यवसाय बन सकेगा और इसकी सुरक्षा और संवर्धन भी हो सकेगा।ऐसे में कहा जा सकता है कि न केवल यूपी बल्कि देशभर में गौवंश की हालत खराब है।
शायद यही वजह है कि हाइकोर्ट को गाय को राष्ट़ीय पशु घोषित करने के लिए आग्रह करना पड़ा। धर्मनिरपेक्ष देश भारत में सबकी मान्यताएं अलग-अलग हो सकती हैं। लेकिन गौवंश की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता है। बहरहाल, यूपी में विधानसभा चुनाव से पहले एक बार फिर गाय मुद्दा बन गयी है। देखना दिलचस्प होगा गाय को लेकर सियासत किस करवट बैठती है।
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(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं समीक्षक हैं )