मुद्दा विहीन राजनीति के दौर में जातीय व क्षेत्रीय दलों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो चली है। उत्तर प्रदेश में अगले साल विधानसभा चुनाव हैं। ऐसा लगता है कि उसकी तैयारियां अभी से शुरू हो गई हैं। सियासी रणनीति बनने लगी है। हर पार्टी खुद को तैयार करने में जुट गई है।
ऐसा लगता है कि चुनावों को ही ध्यान में रखते हुए उत्तर प्रदेश में योगी मंत्रिमंडल में बदलाव और विस्तार दोनों होने वाला है। फिलहाल जो परिदृश्य है, उसमें छोटी पार्टियों की पौबारह लग रही है, बड़े दल चुनावों में अपने फायदे के मद्देनजर उन्हें लुभाने में जुट गए हैं। कभी प्रदेश में केवल कांग्रेस-विरोध को सत्ता-विरोध माना जाता था।
♠ यह भी पढ़ें- औरैया: ‘सरकार आपके द्वार’ कार्यक्रम के द्वारा सीधे जनता तक पहुंचाया जाएगा योजनाओं का लाभ
इसके इतर मजदूर-किसान-नौजवान की बात करने वालों को जन-समर्थक मानकर छोटे दलों के उदय और विकास की पहली अनिवार्य शर्त माना जाता था। समय के साथ सत्ता पर नियंत्रण और विरोध का उद्देश्य दोनों बदले।
सत्ता में भागीदारी आज की राजनीति की पहली शर्त बन गयी है। यही वजह है, प्रदेश की किसान और मजदूर राजनीति भी अपनी चमक खो बैठी है। जबकि इस वर्ग की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है।
मजदूर और मजलूमों की बात राजनीतिक दलों के मंचों पर केवल मुद्दे को जीवित बनाए रखने के लिए की जा रही है। नए और क्षेत्रीय दलों का उदय और विकास किसी सर्वमान्य राजनीतिक विचारधारा की अनिवार्य शर्त नहीं रह गयी है।
जातीय और धार्मिक आधार पर बनाए गए इन राजनीतिक दलों का किसी क्षेत्र विशेष में प्रभाव-मात्र ही इनकी राजनीतिक धमक और चुनावी रण में उपयोगिता का परिचायक है।
किसी समय इसी आधार पर बने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का विस्तार राष्ट्रीय स्तर तक पहुंच गया। इससे प्रेरित नए क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने भी आज की प्रादेशिक स्थितियों का लाभ उठाते हुए चुनाव में भागीदारी का मन बनाया है।
सवाल फिर भी आम जनता यानी उस वर्ग का है जिसके खास हितों के संरक्षण के लिए इन दलों का निर्माण किया गया था।
उत्तर प्रदेश में वर्ष 2002 से ही छोटे दलों ने गठबंधन की राजनीति शुरू कर जातियों को सहेजने की भरपूर कोशिश की है। इसका प्रभावी असर 2017 के विधानसभा चुनाव में देखने को भी मिला।
तब जब राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय दलों के अलावा करीब 290 पंजीकृत दलों ने अपने उम्मीदवार उतारे थे। इसके पहले 2012 के विधानसभा चुनाव में भी दो सौ से ज्यादा पंजीकृत दलों के उम्मीदवारों ने किेस्मत आज़माई थी।
♠ यह भी पढ़ें- लघु कथा- ‘श्राद्ध खाने नहीं आऊंगा कौआ बनकर…’
जातीय और क्षेत्रीय समीकरण कैसे साधे जाते हैं इसका पहला संकेत तो योगी मंत्रिमंडल के संभावित बदलाव और विस्तार में मिल ही जाएगा। केवल सत्ताधारी बीजेपी ही नहीं बल्कि अन्य दल इन छोटे दलों को अपनी ओर खींचने की कोशिश में जुटे हैं।
योगी मंत्रिमंडल के विस्तार जो दो नए नाम मंत्री पद के लिए उभर रहे हैं, वो अपना दल से आशीष पटेल और निषाद पार्टी से संजय निषाद का है।
आशीष अपना दल से हैं तो संजय आते हैं निषाद पार्टी से। फिलहाल ये दोनों पार्टियां बीजेपी की सहयोगी पार्टियां भी हैं। अपना दल बीजेपी के साथ मिलकर चुनाव जरूर लड़ता है लेकिन अपने चुनाव चिह्न पर। वहीं निषाद पार्टी ने खुद का एक तरह से बीजेपी में विलय कर लिया है, वो बीजेपी के सिंबल पर चुनाव लड़ते हैं।
हाल में जब मोदी मंत्रिमंडल का विस्तार हुआ तब भी यूपी चुनावों के मद्देनजर सूबे की छोटी पार्टियों का खयाल रखा गया। बहुत छोटे और तात्कालिक हितों की रक्षा के लिए जातीय और धार्मिक आधार पर बनाये गए राजनीतिक दलों के अस्तित्व को आज के राजनीतिक विशेषज्ञ लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं मानते। कारण ये है, मुद्दा-हीन चुनावों में मतदान पचास प्रतिशत के आस-पास होने से जीत-हार का अंतर बहुत कम हो जाता है।
उत्तरप्रदेश के 2007 के विधानसभा चुनावों में 91 विधानसभा क्षेत्रों में सौ से तीन हज़ार के अंतर में हार-जीत हुयी थी। इस स्थिति में बहुत छोटे-छोटे दलों के प्रत्याशियों को मिले मतों की वजह चुनाव परिणामों में अंतर लाने में जिम्मेदार बन जाती है।
व्यक्ति, जाति, सम्प्रदाय और क्षेत्र के आधार बने इन राजनीतिक दलों में कुछ ही दलों और उनके प्रमुखों का नाम लोग जानते हैं। जैसे पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की जनक्रांति पार्टी, केन्द्रीय उड्डयन मंत्री अजीत सिंह की राष्ट्रीय लोकदल, पूर्व सपा और हाई प्रोफाइल नेता अमर सिंह की राष्ट्रीय लोक मंच, बसपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रहे स्व. सोनेलाल पटेल की अपना दल आते हैं.
मशहूर सर्जन डा. अयूब की पीस पार्टी, अन्ना के आंदोलन में अन्ना के मंच की शोभा बढ़ा चुके फिल्म अभिनेता राजा बुंदेला की बुंदेलखंड कांग्रेस, डा. उदित राज की इन्डियन जस्टिस पार्टी, पुराने समाजवादी नेता रघु ठाकुर की लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी प्रमुख हैं।
♠ यह भी पढ़ें- नन्हे शावक अपनी मां के साथ निकले शिकार पर लेकिन करने लगे अठखेलियां…
दूसरे प्रान्तों में सरकार बनाए राजनीतिक दलों जैसे शिव सेना, जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रीय जनता दल, लोक जन शक्ति पार्टी और तृणमूल कांग्रेस ने भी इस चुनाव में अपनी भागीदारी साबित करने के लिए चुनाव में कूदने का मन बना लिया है।
बहुत सी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं ने तो कहना आरम्भ कर दिया है कि वे छोटे दलों के साथ मिलकर चुनाव में उतरेंगे। जैसे औवेसी भाईजान, संजय निषाद, चन्द्रशेखर रावण, ओम प्रकाश राजभर और सपा विकास पार्टी ये सभी दल अजीब तमाशा करने के मूड में हैं।
ओम प्रकाश राजभर ने तो यहां तक कहा है कि पांच वर्षों में पांच मुख्यमंत्री और बीस उप-मुख्य मंत्री बनाए जाएंगे। यानी हर वर्ष एक छोटे दल का लीडर मुख्यमंत्री होगा और अन्य चार दलों के उप मुख्यमंत्री होंगे। पार्टियां, सपा हो या बसपा, भाजपा हो या कांग्रेस, सभी अपने विचारों के साथ सहमत होने वाले दलों को अपने खेमे में लाने का प्रयास करती दीख रही हैं।
♠ यह भी पढ़ें- NEET की परीक्ष के पहले नक़ल गिरोह का भंडाफोड़, NTA की व्यवस्था पर बड़ा सवाल
यूपी में सपा भाजपा के बीच सियासी घमासान
वैसे अभी केवल इतना कहा जा सकता है कि यूपी में मुकाबला तो समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी में ही होता हुआ दिखाई देता है। किन्तु बहन मायावती और असद्दुदीन ओवैसी भी इस महाभारत में अपने अपने धुरंधरों के साथ उतर रहे हैं। इसके अलावा कई छोटे दल भी कुछ इसके साथ, कुछ उसके साथ मिलकर राजनीति में अपनी मौजूदगी का अहसास कराएंगे।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व समीक्षक हैं। )