एलोवेरा की खेती एक परिचय
घृतकुमारी जिसे ग्वारपाठा या अंग्रेजी भाषा में एलोवेरा कहते हैं, एक औषधीय पौधा है। यह साल भर हरा – भरा रहने वाला पौधा है। घृतकुमारी की उत्पति दक्षिणी यूरोप एशिया या अफ्रीका के सूखे क्षेत्रों में मानी जाती है। भारत में घृतकुमारी का व्यासायिक उत्पादन सौन्दर्य प्रसाधन के साथ दवा निर्माण के लिए किया जाता है। घृतकुमारी की पट्टी ही व्यवसायिक इस्तेमालमें अति है। वर्तमान समय में इसका इस्तेमाल औषधीय निर्माण, सौदर्य प्रसाधन, सब्जी और आचार के लिए किया जाता है।
मृदा एवं जलवायु:
घृतकुमारी की व्यवसायिक खेती शुष्क क्षेत्रों से लेकर सिंचित मैदानी क्षेत्रों में की जा सकती है। परंतु आज यह देश के सभी भागों में उगाया जा रहा है। राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में इसका व्यवसायिक स्तर पर उत्पादन किया जा रहा है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे बहुत ही कम पानी तथा अर्द्ध शुष्क क्षेत्र में भी असानी से उगाया जा सकता है। घृतकुमारी फसल के विकास के लिए सबसे उपयुक्त तापमान 20-220 सें. होता है परंतु यह पौधा किसी भी तापमान पर अपने को बचाए रख सकता है।
उन्नतशील प्रजातियाँ:
केन्द्रीय औषधीय संघ पौधा संस्थान के द्वारा सिम-सीतल, एल- 1,2,5 और 49 एवं को खेतों में परीक्षण के उपरान्त इन जातियों से अधिक मात्रा में जैल की प्राप्ति हुई है। इनका प्रयोग खेती (व्यवसायिक) के लिए किया जा सकता है।
आई. सी. – 111271, आई.सी. – 111280, आई. सी. – 111269 और आई. सी.- 111273 का व्यावसायिक तौर पर उत्पादन किया जा सकता है। इन किस्मों में पाई जाने वाली एलोडीन की मात्रा 20 से 23 प्रतिशत तक होती है।
अच्छी पौध का चयन
व्यवासायिक उत्पादन के लिए घृतकुमारी की 4-5 पती वाली लगभग चार महीने पुरानी, 20-25 सें. मी. लम्बाई के पौधे का चयन करते हैं। घृतकुमारी के पौधे की यह खासियत होती है कि इसे उखाड़ने के महीनों बाद भी लगया जा सकता है।
पौध रोपाई:
भूमि की एक-दो जुताई के बाद खेत को पाटा लगाकर समतल बना लें। इसके उपरान्त ऊँची उठी हुई क्यारियों में 50-50 सेमी की दूरी पर पौधों को रोपित करें। पौधों की रोपाई के लिए मुख्य पौधों के बगल से निकलने वाले छोट छोटे पौधे जिसमें चार-पाँच पत्तियाँ हों, का प्रयोग करें। लाइन से लाइन की दूरी 50 एवं पौधे से पौधे की दूरी 50 रखने पर 45,000-50,000 पौधों की आवश्यकता रोपाई के लिए होगी। सिचिंत दशाओं में इसकी रोपाई फरवरी माह में करें।
खाद एवं उर्वरक:
साधारणतया घृतकुमारी को कम उपजाऊ जमीनों में लगाते हैं और कम खाद और उर्वरक के भी इससे अच्छा उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन अच्छी उपज के लिए खेत को तैयार करते समय 10-15 टन सड़ी हूएइ गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर की दर से इस्तेमाल करना चाहिए इससे उत्पादन में गुणात्मक रूप से वृद्धि होती है। गोबर की खाद का इस्तेमाल करने से पौधे की बढ़वार तेजी से होती है और किसान एक वर्ष में एक से अधिक कटाई कर सकता है।
रासायनिक का उपयोग
120 किग्रा. यूरिया, 150 किग्रा. फास्फोरस एवं 33 किग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से डालें। नाइट्रोजन को तीन बार में एवं फास्फोरस व पोटाश को भूमि की तैयारी के समय ही दें। नाइट्रोजन का पौधों पर छिड़काव करना अच्छा रहता है।
सिंचाई:
पौधों की रोपाई के बाद खेत में पानी दें। (घृतकुमारी) की खेती में ड्रिप एवं स्प्रिंकिलर सिंचाई अच्छी रहती है। प्रयोग द्वारा पता चला है कि समय से सिंचाई करने पर पत्तियों में जैल का उत्पादन एवं गुणवत्ता दोनों पर अच्छा प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार वर्ष भर में 3-4 सिंचाईओं की आवश्यकता होती है।
रोग एवं कीट नियन्त्रण:
समय-समय पर खेत से खरपतवारों को निकालते रहें। खरपतवारों का प्रकोप ज्यादा बढऩे पर खरपतवारनाशी का भी प्रयोग कर सकते हैं। ऊँची उठी हुई क्यारियों की समय समय पर मिट्टी चढ़ाते रहें। जिससे पौधों की जड़ों के आस-पास पानी के रूकने की सम्भावना कम होती है एवं साथ ही पौधों को गिरने से भी बचाया जा सकता है। पौधों पर रोगों का प्रकोप कम ही होता है। कभी-कभी पत्तियों एवं तनों के सडऩे एवं धब्बों वाली बीमारियों के प्रकोप को देखा गया है। जो कि फफूंदी जनित बीमारी है। इसकी नियंत्रण के लिए मैंकोजेब, रिडोमिल, डाइथेन एम-45 का प्रयोग 2.0-2.5 ग्राम/ली. पानी में डालकर छिड़काव करने से किया जा सकता है।
फसल की कटाई एवं उपज:
रोपाई के 10-15 महिनों में पत्तियाँ पूर्ण विकसित एवं कटाई के योग्य हो जाती हैं। पौधे की ऊपरी एवं नई पत्तियों की कटाई नहीं करें। निचली एवं पुरानी 3-4 पत्तियों को पहले काटना/तोडें। इसके बाद लगभग 45 दिन बाद पुन: 3-4 निचली पुरानी पत्तियों की कटाई/तुड़ाई करें। इस प्रकार यह प्रक्रिया तीन-चार वर्ष तक दोहराई जा सकती है। एक हेक्टेयर क्षेत्रफल से लगभग प्रतिवर्ष 50-60 टन ताजी पत्तियों की प्राप्ति होती है। दूसरे एवं तीसरे वर्ष 15-20 प्रतिशत तक वृद्धि होती है।
कटाई उपरान्त प्रबंन्धन एवं प्रसंस्करण :
विकसित पौधों से निकाली गई, पत्तियों को सफाई करने के बाद स्वच्छ पानी से अच्छी तरह से धो लिया जाता है, जिससे मिट्टी निकल जाती है। इन पत्तियों के निचले सिरे पर अनुप्रस्थ काट लगा कर कुछ समय के लिए छोड़ देते हैं, जिससे पीले रंग का गाढ़ा रस निकलता है। इस गाढ़े रस को किसी पात्र में संग्रह करके वाष्पीकरण की विधि से उबाल कर, घन रस क्रिया द्वारा सुखा लेते है। इस सूखे हुए द्रव्य को मुसब्बर अथवा सकोत्रा, जंजीवर, केप, बारवेडोज एलोज एवं अदनी आदि अन्य नामों से से विश्व बाजार में जाना जाता है। (घृतकुमारी) की जातिभेद एवं रस क्रिया में वाष्पीकरण की प्रक्रिया के अन्तर से मुसब्बर के रंग, रूप, तथा गुणों में भिन्नता पाई जाती है।
(लेख का इनपुट विभिन्न श्रोतों से लिया गया है, समाचार पत्र इसके आंकड़ों की पुष्टि नहीं करता। किसान इसकी खेती करने से पूर्व संबंधित अधिकारी से अवश्य सलाह लें। )