लखनऊ, (एस.वी.सिंह उजागर)। यह चुनावी मौसम है। मौजूदा समय में आपको जो कुछ भी दिखाई दे रहा है वह चुनाव को लेकर ही है। चाहे वह लोक सभा का बजट कालीन सत्र हो या फिर यूपी विधान सभा का। सत्ता और विपक्ष दोनों शतरंज खेल रहे हैं। लेकिन क्या आपको पता है कि राजनीति की विशात पर जो मोहरे रखे गये है वह कौन हैं? वह हैं आप और हम यानि हमारे देश की आम जनता।
राजनीति में सीखने का मौका तो है लेकिन संभलने का मौका बहुत कम ही मिल पाता है। यदि एक बार आपके धरातल से जमीन खिसक गयी तो वापस उसे लाना बहुत मुशिकल हो जाता हैं।
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2004 की स्थिति
आज से ठीक 20 साल पहले यानि 2004 के चुनाव के बाद केन्द्रीय सत्ता में परिवर्तन हुआ। भाजपा सरकार को पटखनी देकर यूपीए गठबंधन की दिल्ली में सरकार बनी। प्रधानमंत्री बने कांग्रेस के मनमोहन सिंह।
2009 में इस तरह हावी रहा यूपीए
2009 में फिर आम चुनाव हुआ। इस चुनाव में भाजपा की तरफ से पीएम फेस थे राममंदिर रथयात्रा के नायक लालकृष्ण आड़वाणी और कांग्रेस बिना पीएम फेस के ही चुनाव लड़ी। चुनाव कांग्रेस के पक्ष में रहा और फिर मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने।
यदि यूपी के बात करें तो उत्तर प्रदेश में 2009 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को महज 10 सीटें मिली थीं। वहीं कांग्रेस को 21, समाजवादी पार्टी को सबसे ज्यादा 23 और बहुजन समाज पार्टी के खाते में 20 सीटें थी। जबकि अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के पास भी 05 सीटे थीं।
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2014 में बदल गयीं परिस्थित
लेकिन… 2014 आते-आते देश और प्रदेश दोनों के समीकरण बदलने लगे। उत्तर प्रदेश में 2014 के आम चुनाव से पहले 2012 में विधानसभा का चुनाव भी हुआ जिसमें समाजवादी पार्टी ने फुल बहुमत की सरकार बनाई। मुख्यमंत्री बने अखिलेश यादव।
यानि आज का विपक्ष 2014 के आम चुनाव से पहले न केवल मजबूती के साथ खड़ा था बल्कि केन्द्र और प्रदेश दोनों जगह सत्तासीन था।
फिर ऐसा क्या हुआ कि यकायक भारतीय जनता पार्टी के ऐसी लहर चली जिससे उत्तर प्रदेश में वह 2014 में 10 सीटों से बढ़कर 71 सीटें जीतने में कामयाब रही। और कांग्रेस सीधे 21 से फिसलकर 2 पर आ गई। 1 सीट रायबरेली जहां से सोनियां गांधी जीतीं और दूसरी सीट अमेठी से राहुल गांधी किसी तरह से बचाने मे कामयाब रहे।
समाजवादी पार्टी को मिलीं पांच, जिनमें सभी सीटें उनके परिजनों ने जीतीं। और सबसे हैरान कर देने वाली बात रही बहुजन समाज पार्टी के खाते में 1 भी सीट नहीं आयी। 5 सीटों वाला राष्ट्रीय लोकदल भी शुन्य पर रहा।
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राजनीति में यह एक नये युग की शुरूआत थी। यूपी में एक दल और उभर कर आया वह था अनुप्रिया पटेल का अपना दल एस.। इसने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और 2 सीटों पर कामयावी हासिल की। इसे नये युग की शुरूआत इस लिए भी कहा जायेगा क्यों कि इसके बाद कल के सत्ताधारी दल आज की राजनीति में जिस तरह से हासिये पर आ गये वह किसी युग बदलने जैसा ही है। 2014 से यदि 2024 की तुलना करें तो आपको बिल्कुल साफ लगेगा कि हम राजनीति की एक ऐसी परंपरा में प्रवेश कर गये जहां सिर्फ जीत ही माइने रखती है फिर वह चाहे जिस मूल्यों पर मिली हो।
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2019 में विपक्षी हो गये पूरी तरह धरासाई
2019 के आम चुनाव से पहले भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी से सत्ता छीन ली। अब उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री थे गोरखनाथ पीठ के महंत योगी आदित्यनाथ और केन्द्र की सत्ता में था भाजपा के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन । प्रधानमंत्री थे नरेन्द्र दामोदास मोदी।
फिर चुनाव हुआ। कुछ सीटे बदली लेकिन स्थिति नहीं बदली। इस बार यूपी में भाजपा भाजपा को सीटे मिलीं 62 पिछले चुनाव की तुलना में 9 सीटें कम लेकिन उसका ऑफ परसेंटेज पिछले चुनाव की अपेक्षा 7.35 फीसदी बढ़ गया। यानि इस बार उसे 49.98 फीसदी वोट मिला। यदि इसमें अपनादल एस का 2.5 फीसदी वोट और जोड़ दिया जाये तो यह हो जाता है 52.48 प्रतिशत। यानि यूपी के आधे से अधिक मतदाताओं ने भाजपा गठबंधन को वोट दिया।
समाजवादी पार्टी फिर 5 पर सिमट गयी। इस बार मुलायम सिंह की बहू डिंपल यादव भी कन्नौज से चुनाव हार गयीं। कांग्रेस 1 पर आ गयी। राहुल गांधी अमेठी से अपनी सीट गवां बैठे। चुनाव में बसपा ने जरूर वापसी की वह समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ी थी उसे 10 सीटें मिलीं। रालोद कोई सीट फिर नहीं जीत सका। अपना दल एस को 2 सीटें मिल गयीं।
मौजूदा समय में उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हालातों पर आगे बढ़ने से पहले मौजूदा परिस्थिति में किस पार्टी के पास कितना मत प्रतिशत है यह जान लेना भी बहुत जरूरी है। तो इसे भी देख लेते हैं।
62 सीटों के साथ भारतीय जनता पार्टी को 2019 के आम चुनाव में 49.98 फीसदी वोट मिला। यानि सीधे-सीधे कुल वोटों के आधे। समाजवादी पार्टी को 18.11 प्रतिशत, बहुजन समाजपार्टी को 19.43 प्रतिशत और कांग्रेस को मात्र 6.36 फीसदी वोट मिला। राष्ट्रीय लोकदल 1 फीसदी के नीचे पिछले चुनाव में ही आ चुका था।
2024 में भाजपा को खत्म कर पाना टेढ़ी खीर
2004 में केन्द्र की सत्ता गवां बैठी भाजपा ने 2019 आते-आते राजनीति की वह लकीर खींच दी जिसे विपक्षी दलों के लिए न तो मिटा पाना संभव हो पा रहा है और न उसे छोटा कर पाना। 2024 का बिगुल एक तरह से बज चुका है। विपक्षी खेमा लड़ने से पहले लड़खड़ाने लगा है।